सर्वोच्च न्यायालय के राज्यपाल की शक्तियाँ: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को प्रेसिडेंशियल रेफरेंस मामले में एक बेहद अहम फैसला सुनाते हुए राज्यपालों की विधायी शक्तियों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया है. संविधान पीठ, जिसकी अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई कर रहे थे. मुख्य न्यायाधीश ने साफ कहा कि राज्यपाल किसी भी विधेयक को अनिश्चित काल तक लंबित रखकर नहीं रोक सकते. यह अधिकार न तो संविधान द्वारा दिया गया है और न ही यह किसी संवैधानिक व्यवस्था पर आधारित है।
राज्यपाल के पास तीन ही विकल्प हैं
कोर्ट ने अनुच्छेद 200 और 201 का हवाला देते हुए कहा कि राज्यपाल के पास किसी विधेयक पर केवल तीन वैध संवैधानिक विकल्प हैं-
- विधेयक पर सहमति
- पुनर्विचार के लिए लौटें
- विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजने के लिए (राष्ट्रपति के लिए आरक्षित)
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‘समय सीमा तय करना’ और ‘मानित सहमति’ खारिज कर दी गई
कुछ राज्यों का तर्क था कि अगर राज्यपाल तय समय में फैसला नहीं देते हैं तो बिल को ‘डीम्ड असेंट’ यानी स्वत: मंजूरी माना जाना चाहिए. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया और कहा कि ऐसा करना शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के खिलाफ होगा. सीजेआई गवई ने कहा, “समझी गई सहमति का मतलब होगा कि कोई अन्य संस्था राज्यपाल की भूमिका संभाल रही है. यह संवैधानिक व्यवस्था पर कब्ज़ा है.”
इसी तरह कोर्ट ने राज्यपाल की फैसले के लिए तय समयसीमा तय करने की मांग भी खारिज कर दी. कोर्ट ने कहा कि संविधान ने अनुच्छेद 200 और 201 में ‘लचीलापन’ सोच-समझकर रखा है. अत: न्यायालय या विधानसभा राज्यपाल या राष्ट्रपति पर कोई समय सीमा नहीं लगा सकती।
‘बिल रोकने’ की शक्ति सीमित
सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि सामान्य परिस्थितियों में राज्यपाल बिल पर रोक नहीं लगा सकते. इस अधिकार का प्रयोग केवल दो विशेष परिस्थितियों में ही किया जा सकता है। जब विधेयक को राष्ट्रपति की सहमति के लिए आरक्षित रखना आवश्यक हो या जब विधेयक को विधानसभा द्वारा पुनर्विचार के लिए वापस भेजा जा रहा हो।
इस फैसले ने न केवल कई राज्यों और केंद्र के बीच चल रहे टकराव को नई स्पष्टता दी है, बल्कि भविष्य में राज्यपालों की भूमिका और दायरे को भी सटीक रूप से परिभाषित किया है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारत की संघीय व्यवस्था और संवैधानिक ढांचे को मजबूत करने वाला साबित होगा.



