दीपक सवाल, कसमार, कसमार प्रखंड का सुरजूडीह गांव सिर्फ एक गांव नहीं, बल्कि आस्था, परंपरा और लोक-संस्कृति का जीवंत प्रतीक है. यहां स्थित काली मंदिर लगभग तीन सौ वर्षों से श्रद्धा और विश्वास का केंद्र बना हुआ है. देवी की मूर्ति भले आधुनिक काल में भव्य स्वरूप में दिखती हो, लेकिन इसकी आत्मा आज भी उसी मिट्टी में सांस लेती है, जहां पूजा तिरपाल की छांव में शुरू हुई थी. इस मंदिर की सबसे खास बात यह है कि यह ब्राह्मण परिवार द्वारा स्थापित होने के बावजूद, इसकी पूजा में गांव के लगभग सभी जाति-समुदायों की सहभागिता पूर्वजों के समय से चली आ रही है. काली पूजा की रात जब देवी के दरबार में बलिदान की तैयारी होती है, तो परंपरा के अनुसार सबसे पहले फुटलाही और सुइयाडीह के कुड़मी-महतो (ओहदार परिवार) द्वारा लाये गये बकरे की पहली बलि दी जाती है. इसके बाद वार्षिक और मनौती की बलियां चढ़ती हैं, और अंत में ईंख की प्रतीकात्मक बलि, जो हर साल पोंडा के कोचागोड़ा महतो परिवार से ही लाई जाती है. मशाल जलाने की रस्म भी विशिष्ट है. जब तक सुइयाडीह के तेली परिवार मशाल नहीं जलाते, बलि आरंभ नहीं होती. मूर्ति निर्माण का कार्य बगदा के सूत्रधर परिवार, जबकि कुर्रा (चास) के गोस्वामी परिवार के द्वारा डाक मुकुट निर्माण की परंपरा आज भी निभाई जा रही है. देवी के प्रसाद ‘भात भोग’ की रस्म भी अनूठी है. यह आज भी सुइयाडीह के कुम्हार महतो परिवार के मिट्टी के बर्तन में ही पकता है. मूर्ति निर्माण के लिए मिट्टी लाने और गूंथने का कार्य सुरजूडीह के कमार समुदाय के लोग करते हैं. पूजा की ध्वनि बगदा के ढोल, ढाक और शहनाई से गूंजती है. यहां नाई समुदाय का पूजन कार्य में और लोहरा समुदाय का बलि के लिए खड्ग तेज करने में योगदान रहता है. मंदिर से लेकर पुरना बांध तक की साफ-सफाई की जिम्मेदारी आज भी करमाली समुदाय निभाता है. यह सब मिलकर काली पूजा को जन पूजा बनाते हैं, न कि किसी वर्ग विशेष की. मंदिर के महत्व को लेकर हैं कई किंवदंतियां इस मंदिर की स्थापना की कहानी और भी रहस्यमयी और रोमांचक है. करीब तीन दशक पहले, 1993 में, गांव के हरिया कमार नामक व्यक्ति पर एक सुबह देवी सवार हो गयी. हरिया बचपन से बधिर और मंदबुद्धि थे, पर उस दिन वे देवी के रूप में मुखर्जी टोला से लेकर कमार टोला तक घूमे और हर घर जाकर कहा कि मां का आदेश है, सुरजूडीह में एक काली मंदिर बनाओ. गांव में सनसनी फैल गयी. लोगों ने इसे देवी की आज्ञा माना. अगले ही दिन चंदा संग्रह शुरू हुआ. आस-पास के गांवों, यहां तक कि कसमार प्रखंड तक से धन जुटाया गया. कभी पैसे की कमी आयी, तो तत्कालीन बीडीओ मनोज जायसवाल ने सहयोग किया. साल 1995 में तीन गुंबज वाला भव्य काली मंदिर बनकर तैयार हुआ, लेकिन मंदिर बनते ही हरिया की अचानक मृत्यु हो गयी. गांव के लोग आज भी मानते हैं कि देवी ने हरिया को अपना माध्यम बनाया. वही सच्चे अर्थों में मां का दूत था. आज भी जब काली पूजा की रात होती है, तो पूरा सुरजूडीह गांव रोशनी, ध्वनि और आस्था से भर उठता है. करीब सात फीट ऊंची प्रतिमा, सैकड़ों श्रद्धालु, 50 से अधिक बलिदान, और देवी के जयकारों के बीच पूरी रात आराधना चलती है. इस वर्ष काली पूजा के अवसर पर भक्ति जागरण का आयोजन भी किया गया है.
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