Machado Nobel Peace Prize Controversy: नोबेल शांति पुरस्कार का नाम सुनते ही दिमाग में क्या आता है? शांति, मानवता, और संघर्ष से ऊपर उठने की तस्वीर, है न? लेकिन इस बार का नोबेल शांति पुरस्कार मिला है वेनेज़ुएला की विपक्षी नेता मारिया कोरिना मचाडो को, और इसके बाद शुरू हो गई है जबरदस्त बहस. चीन के वरिष्ठ पत्रकार एलेक्स लो ने तो इसे लेकर ऐसा तंज कसा कि सोशल मीडिया तक गूंज उठा. उन्होंने लिखा कि अब इसका नाम बदल देना चाहिए. इसे नोबेल शांति पुरस्कार नहीं, बल्कि नोबेल युद्ध पुरस्कार कहा जाए. उनका यह बयान दरअसल मचाडो की आलोचना का हिस्सा था, जिन्हें नोबेल समिति ने “लोकतंत्र की लौ जलाए रखने वाली शांति की अग्रदूत” बताया है.
🚨⚡️ Nobel Peace Prize winner Maria Corina Machado proposes regime change in Venezuela to Donald Trump:
“Forget Saudi Arabia, I mean we have more oil than them, I mean endless possibilities. We will privatize our entire industry for you. American companies will profit greatly!” pic.twitter.com/OuwCbiKpoI
— RussiaNews 🇷🇺 (@mog_russEN) October 14, 2025
‘शांति की देवी’ या सैन्य समर्थक?
मचाडो की छवि दो ध्रुवों पर खड़ी है. एक तरफ वो लोकतंत्र की समर्थक बताई जाती हैं, तो दूसरी तरफ उनके कई पुराने बयान उन्हें सैन्यवाद (Militarism) के करीब दिखाते हैं. 2019 में, मचाडो ने कहा था कि राष्ट्रपति निकोलस मादुरो को सत्ता से हटाने का एकमात्र तरीका है अंतरराष्ट्रीय सैन्य बल का विश्वसनीय और आसन्न खतरा.
यानी, लोकतंत्र की बात करते हुए भी वह विदेशी सैन्य हस्तक्षेप को सही ठहराती दिखीं. उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की कैरिबियन में सैन्य उपस्थिति का समर्थन किया था. यहां तक कि उन्होंने मादुरो की ड्रग फंडिंग रोकने के लिए अमेरिकी ड्रग बोट्स पर बमबारी को भी “जरूरी कदम” बताया था. कई रिपोर्टों में दावा किया गया है कि मचाडो और उनके सलाहकारों ने ट्रम्प प्रशासन के साथ मादुरो को हटाने की संभावित योजनाओं पर समन्वय भी किया था.
‘अमेरिकी आशीर्वाद’ और दक्षिणपंथी जुड़ाव पर उठे सवाल
द गार्जियन की रिपोर्ट बताती है कि कई विशेषज्ञ मचाडो के ट्रम्प और ब्राजील के पूर्व राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो जैसे कट्टर दक्षिणपंथी नेताओं से रिश्तों को लेकर संशय में हैं. साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट में एलेक्स लो के विचार लेख में भी यही चिंता झलकती है. लो के मुताबिक, अमेरिकी सीनेटर मार्को रुबियो ने मचाडो को नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया था, और संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत माइक वाल्ट्ज ने भी इसका समर्थन किया.
लो आगे लिखते हैं कि मचाडो ने CBS न्यूज को एक इंटरव्यू में कहा था कि सिर्फ अमेरिकी सेना ही हमारे देश में दमन को रोक सकती है. उनके अनुसार यह है कि अमेरिकी साम्राज्य के मुखिया की प्रशंसा करना, जिसने अपने देश को दुश्मन मानकर सैन्य अभियान चलाया, बहुत ‘शांतिपूर्ण’ नहीं लगता.”
Machado Nobel Peace Prize Controversy: मचाडो के समर्थक उन्हें लोकतंत्र की नायिका मानते हैं
मचाडो के समर्थक उन्हें लोकतंत्र की नायिका मानते हैं, जबकि आलोचक उन्हें देश के लिए खतरा बताते हैं. एलेक्स लो का कहना है कि वह उस तरह की शांतिदूत नहीं लगतीं, जैसी अल्फ्रेड नोबेल के मन में थीं. अब जरा नोबेल की कहानी भी सुनिए. कहानी है ‘मौत का सौदागर’ कैसे बना शांति का प्रतीक नोबेल शांति पुरस्कार का नाम जिस व्यक्ति पर रखा गया है, वही खुद एक समय “मौत का सौदागर” कहलाए थे. 1888 में, अल्फ्रेड नोबेल के भाई लुडविग की फ्रांस में मृत्यु हो गई थी. लेकिन एक फ्रांसीसी अखबार ने गलती से अल्फ्रेड नोबेल का मृत्युलेख प्रकाशित कर दिया.
शीर्षक था, “मौत का सौदागर मर गया”. अखबार ने उन्हें विस्फोटक और हथियारों से मुनाफा कमाने वाला व्यक्ति बताया. दरअसल, नोबेल ने डायनामाइट का आविष्कार किया था और वह Bofors हथियार कंपनी के मालिक थे. इस खबर ने नोबेल को भीतर तक झकझोर दिया. उन्हें डर हुआ कि इतिहास उन्हें एक विनाशक के रूप में याद करेगा.
विज्ञान, साहित्य और शांति के लिए संपत्ति समर्पित किए
1895 में, नोबेल ने अपनी वसीयत में तय किया कि उनकी अधिकांश संपत्ति उन लोगों को सम्मानित करने के लिए समर्पित होगी, जो विज्ञान, साहित्य और शांति के जरिए मानवता की सेवा करेंगे. विडंबना देखिए कि नोबेल ने युद्ध से मिली ग्लानि से जन्मा शांति पुरस्कार शुरू किया, और आज उसी पुरस्कार से सम्मानित की जा रही है ऐसी नेता, जो अपने देश में विदेशी सैन्य हस्तक्षेप की हिमायती रही हैं. एलेक्स लो का व्यंग्य शायद इसी विरोधाभास पर वार करता है कि अगर ये शांति है, तो युद्ध किसे कहेंगे?”
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