प्रयागराज, अमृत विचार: घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के तहत भरण-पोषण के मामलों में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के स्पष्ट निर्देशों का पालन न करने पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कड़ी नाराजगी जताई है। कोर्ट ने इसे “प्रणालीगत विफलता” और “न्यायिक उदासीनता” करार दिया है। उपरोक्त टिप्पणी न्यायमूर्ति विनोद दिवाकर की एकल पीठ ने वाराणसी के एक न्यायिक मजिस्ट्रेट न्यायालय में लंबित एक मामले की धीमी कार्यवाही पर दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान की।
याचिकाकर्ता/पत्नी ने कहा कि उन्होंने 6 नवंबर 2018 को घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज कराई थी, लेकिन छह साल बाद भी उन्हें न्याय नहीं मिला. पति, जो रेलवे में एक सेक्शन इंजीनियर है और लगभग ₹1.10 लाख का मासिक वेतन लेता है, ने अब तक ₹15,000 के मासिक रखरखाव के आदेश का पालन नहीं किया है। कोर्ट को बताया गया कि पति ने एक भी रुपया नहीं दिया. इस हिसाब से 4.55 लाख रुपये की रकम बकाया है.
इस पर कोर्ट ने कहा कि न तो ट्रायल कोर्ट और न ही पुनर्विचार अदालत ने प्रतिवादी को संपत्ति और देनदारी का हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने रजनीश बनाम नेहा और हाई कोर्ट ने पारुल त्यागी बनाम गौरव त्यागी में इसे अनिवार्य कर दिया है. न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इस तरह की निष्क्रियता “संवैधानिक अदालतों की अवहेलना” है और न्यायिक प्रणाली में जनता के विश्वास को कम करती है।
अदालत ने यह भी पाया कि राजेश बाबू सक्सेना बनाम राज्य मामले में दिए गए आदेश, जिसमें पति के वेतन से भरण-पोषण की अनिवार्य कटौती का निर्देश दिया गया था, का पालन नहीं किया गया। अदालत ने वाराणसी के न्यायिक मजिस्ट्रेट को यह स्पष्ट करने का निर्देश दिया कि किन कानूनी बाधाओं के कारण संपत्ति-देनदारी का हलफनामा नहीं लिया गया, और समीक्षा अदालत से यह भी स्पष्टीकरण मांगा कि 15,000 रुपये की राशि को घटाकर 10,000 रुपये करने का आधार क्या था।
अदालत ने चेतावनी दी कि गोलमोल या असंतोषजनक जवाब देने पर संबंधित अधिकारियों के खिलाफ प्रशासनिक कार्रवाई की जा सकती है. कोर्ट ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि घरेलू हिंसा और भरण-पोषण जैसे संवेदनशील मामलों में बार-बार निर्देश देने के बावजूद अधीनस्थ अदालतें अपेक्षित संवेदनशीलता और जिम्मेदारी नहीं दिखा रही हैं.
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