इंदौर. मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की इंदौर पीठ ने महू में अल-फलाह विश्वविद्यालय, फरीदाबाद के चांसलर जवाद अहमद सिद्दीकी के पैतृक घर के “अनधिकृत निर्माण” को हटाने के संबंध में छावनी बोर्ड के नोटिस के कार्यान्वयन पर अंतरिम रोक लगा दी है।
अदालत ने ‘हिबानामा’ (इस्लामिक परंपरा के अनुसार किसी व्यक्ति के नाम पर संपत्ति उपहार में देना) के जरिये इस घर के स्वामित्व का दावा करने वाले एक व्यक्ति की याचिका पर यह आदेश जारी किया. दिल्ली में लाल किले के पास धीमी गति से चलती कार में विस्फोट के बाद अल-फलाह विश्वविद्यालय कानून प्रवर्तन एजेंसियों की जांच के दायरे में है। 10 नवंबर को हुए इस विस्फोट में 15 लोगों की जान चली गई थी.
अधिकारियों के मुताबिक, यूनिवर्सिटी के चांसलर जवाद अहमद सिद्दीकी मूल रूप से महू के रहने वाले हैं और उनके पिता हम्माद अहमद लंबे समय तक महू के शहर काजी थे, जिनका कई साल पहले निधन हो गया था। अधिकारियों ने बताया कि इंदौर से करीब 30 किलोमीटर दूर महू की छावनी परिषद के रिकॉर्ड में मुकेरी इलाके का मकान नंबर 1371 जवाद अहमद सिद्दीकी के दिवंगत पिता हम्माद अहमद के नाम पर दर्ज है.
19 नवंबर को जारी छावनी बोर्ड के नोटिस में कहा गया था कि इस घर के “अनधिकृत निर्माण” को तीन दिनों के भीतर हटा दिया जाना चाहिए, अन्यथा परिषद प्रासंगिक कानूनी प्रावधानों के तहत निर्माण को ध्वस्त कर देगी और इस कार्रवाई की लागत घर के कब्जे वाले या संपत्ति के मालिक के कानूनी उत्तराधिकारियों से वसूली जाएगी। महू के इस मकान में रहने वाले अब्दुल मजीद (59) ने कैंटोनमेंट बोर्ड के नोटिस को चुनौती देते हुए हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी.
खुद को पेशे से किसान बताने वाले माजिद ने याचिका में कहा कि उनके पिता हम्माद अहमद की मृत्यु के बाद यह संपत्ति जवाद अहमद सिद्दीकी ने उन्हें ‘हिबा’ के तहत वर्ष 2021 में दी थी और ‘हिबानामा’ के आधार पर याचिकाकर्ता इसका मालिक है. माजिद के वकील अजय बागड़िया ने हाई कोर्ट में दलील दी कि कैंटोनमेंट बोर्ड ने उनके मुवक्किल को सुनवाई का कोई मौका दिए बिना ही नोटिस जारी कर दिया.
उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता को सुनवाई का मौका दिया जाना चाहिए. वहीं कैंटोनमेंट बोर्ड के वकील आशुतोष निमगांवकर ने कोर्ट में दलील दी कि इस मकान को लेकर पहले भी नोटिस जारी किए गए थे, लेकिन उनका कोई जवाब दाखिल नहीं किया गया, इसलिए अब याचिकाकर्ता को जवाब दाखिल करने का समय नहीं दिया जाना चाहिए.
हाई कोर्ट के जस्टिस प्रणय वर्मा ने दोनों पक्षों की दलीलों पर गौर करने के बाद कहा, ‘नोटिस को देखने से ऐसा लगता है कि हालांकि याचिकाकर्ता को पहले भी नोटिस जारी किए गए थे, लेकिन ये करीब 30 साल पहले 1996/1997 में जारी किए गए थे और उसके बाद अब नोटिस जारी किया गया है.’
यदि पिछली नोटिस जारी होने के लगभग 30 साल बाद याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई कार्रवाई की जानी थी, तो उसे सुनवाई का अवसर दिया जाना चाहिए था।” एकल पीठ ने आदेश में कहा, ”मामले के वर्तमान तथ्यों को देखते हुए, यह निर्देश दिया जाता है कि याचिकाकर्ता 15 दिनों के भीतर सभी आवश्यक दस्तावेजों के साथ प्रतिवादियों/सक्षम प्राधिकारी के समक्ष अपना जवाब दाखिल करें।
इसके बाद याचिकाकर्ता को सुनवाई का पूरा मौका दिया जाएगा और उसके बाद मामले में तर्कसंगत आदेश जारी किया जाएगा.” हाई कोर्ट ने कहा कि जब तक यह प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती, याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जाएगी. अदालत ने स्पष्ट किया कि वह याचिका के तथ्यों पर विचार किए बिना उसका निपटारा कर रही है.



