इसका दुष्परिणाम वर्ष 2005 में ही देखने को मिला जब अयोध्या में रामलला के तम्बू पर हमला किया गया, जिसका उद्देश्य सिर्फ किसी धार्मिक स्थल को निशाना बनाना नहीं था, बल्कि भारत की आस्था पर हमला करना था। ठीक एक साल बाद 2006 में मुंबई की लोकल ट्रेनों में बम धमाके हुए जिसमें 187 लोग मारे गए. इसी साल जम्मू-कश्मीर के डोडा और उधमपुर में हिंदू समुदाय पर हमला हुआ, जिसमें 34 लोगों की जान चली गई. साल 2007 में हैदराबाद में धमाके हुए, 44 लोग मारे गए, लखनऊ और वाराणसी में भी आतंकियों ने अपनी नापाक हरकतें कीं. वर्ष 2008 वह वर्ष था जब देश ने मुंबई हमलों के रूप में आतंकवाद का सबसे भयानक चेहरा देखा, जिसमें 246 निर्दोष नागरिक मारे गए। उसी साल जयपुर, अहमदाबाद और दिल्ली में सिलसिलेवार बम धमाके हुए, जिनमें दर्जनों लोगों की जान चली गई. पुणे की जर्मन बेकरी पर हमला, 2010 के वाराणसी विस्फोट और 2011 के मुंबई विस्फोटों ने साबित कर दिया कि उस समय की कांग्रेस सरकार न केवल आतंकवादियों को रोकने में विफल रही, बल्कि देश को भय और असुरक्षा के साये में छोड़ दिया। 2005 से 2011 के बीच आतंकवादियों ने भारतीय धरती पर 27 बड़े हमले किए, जिनमें लगभग 1,000 निर्दोष नागरिक मारे गए। इतना ही नहीं, जब-जब भारत के आतंकवादी दुश्मन देश छोड़कर भागे, तब-तब भी कांग्रेस की सरकार ही सत्ता में थी। 1986 में दाऊद इब्राहिम, 1993 में सैयद सलाउद्दीन, 1993 में टाइगर मेमन और अनीस इब्राहिम, 2007 में रियाज भटकल और 2010 में इकबाल भटकल देश छोड़कर भाग गए, जब भी कांग्रेस सत्ता में थी। आतंकवादियों के भागने का यह सिलसिला इस बात का प्रमाण है कि उस समय आतंकवाद पर अंकुश लगाने की कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं थी। विपक्षी दलों की इसी लापरवाही का नतीजा था कि 2004 से 2014 के बीच देश में 7,217 आतंकी घटनाएं हुईं.



