शेख़ हसीना को मौत की सज़ा: बांग्लादेश इस समय राजनीति और कानून दोनों के जटिल मोड़ पर खड़ा है। एक ओर, अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण (आईसीटी) ने अपदस्थ प्रधान मंत्री शेख हसीना को “मानवता के खिलाफ अपराध” के लिए मौत की सजा दी है। दूसरी ओर, बांग्लादेश की अंतरिम सरकार उन्हें सौंपने के लिए भारत पर दबाव बना रही है। लेकिन असली कहानी इससे भी जटिल है क्योंकि बांग्लादेश के इतिहास में आज तक किसी महिला को फांसी नहीं दी गई है और भारत के पास इस प्रत्यर्पण से बचने के लिए कई कानूनी रास्ते हैं। ये पूरा मामला राजनीति, कानून और कूटनीति को मिलाकर एक बड़े भूकंप जैसी स्थिति पैदा करता है.
ICT के फैसले पर शेख हसीना का बड़ा आरोप- ‘फैसला पहले से ही तय था’
फैसले के बाद शेख हसीना ने साफ शब्दों में आईसीटी पर हमला बोला. उन्होंने कहा कि यह पूरा फैसला ”धांधली”, ”पक्षपातपूर्ण” और ”राजनीतिक प्रतिशोध” वाला है. हसीना के मुताबिक, अगस्त 2024 में छात्रों के विरोध प्रदर्शन को बहाना बनाकर उन्हें निशाना बनाया गया। उन्होंने कहा कि न्यायाधिकरण एक अनिर्वाचित सरकार के नियंत्रण में है, जिसके पास कोई जनादेश नहीं है। हसीना ने यह भी स्वीकार किया कि सरकार उस समय स्थिति को संभालने में सक्षम नहीं थी, लेकिन कहा कि किसी भी परिस्थिति में इसे “पूर्व नियोजित हमला” नहीं कहा जा सकता। उन्होंने आईसीसी में शामिल होने, रोहिंग्या शरणार्थियों को समायोजित करने, बिजली और शिक्षा में सुधार और लाखों लोगों को गरीबी से बाहर लाने जैसी अपने कार्यकाल की उपलब्धियां भी गिनाईं।
अंतरिम सरकार का तर्क- ‘कानून के सामने कोई बड़ा नहीं’,
इधर, बांग्लादेश की अंतरिम सरकार इस फैसले को ”ऐतिहासिक” बता रही है. डेली स्टार के मुताबिक, अंतरिम सरकार के प्रमुख मोहम्मद यूनुस ने कहा कि यह फैसला 2024 के आंदोलन से प्रभावित हजारों लोगों के लिए राहत है. यूनुस का कहना है कि इससे साबित होता है कि देश में कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है. उन्होंने कहा कि युवाओं और बच्चों पर बल प्रयोग का आदेश लोकतंत्र और नागरिकों के विश्वास का उल्लंघन है. उनके मुताबिक, बांग्लादेश अब कानून के शासन और मानवाधिकारों को मजबूत करने की दिशा में आगे बढ़ेगा।
शेख हसीना की मौत की सजा हिंदी में: क्या भारत को वापस करनी होगी हसीना?
बांग्लादेश ने आधिकारिक तौर पर शेख हसीना और पूर्व गृह मंत्री असदुज्जमां खान कमाल के भारत से प्रत्यर्पण की मांग की है। यह अनुरोध 2013 की भारत-बांग्लादेश प्रत्यर्पण संधि के तहत किया गया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या भारत उन्हें सौंपने के लिए कानूनी रूप से बाध्य है? इसका सीधा उत्तर है नहीं. दोहरी आपराधिकता का नियम भारत कह सकता है कि अपराध हमारे कानून में नहीं बनता है
संधि के अनुच्छेद 1 और 2 के अनुसार, किसी व्यक्ति को तभी सौंपा जा सकता है जब उसके अपराध को दोनों देशों में अपराध माना जाए। बांग्लादेश हसीना पर “मानवता के खिलाफ अपराध” का आरोप लगा रहा है, लेकिन भारत ऐसे आरोपों को घरेलू राजनीतिक घटना नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय मामला मानता है। यानी भारत कह सकता है कि ये अपराध भारतीय कानून के तहत नहीं बनता.
राजनीतिक मुद्दा होने पर प्रत्यर्पण रोका जा सकता है
संधि के अनुच्छेद 6(1) में साफ कहा गया है कि अगर मामला “राजनीतिक” लगे तो भारत सीधे इनकार कर सकता है. वर्तमान स्थिति यह है कि हसीना को सत्ता से बेदखल कर दिया गया है, अंतरिम सरकार की वैधता पर सवाल हैं और आईसीटी पर “एक वर्ष में फास्ट-ट्रैक निर्णय” होने का आरोप लगाया गया है। ये सब इसे राजनीतिक मामला साबित करता है. यूनुस सरकार अनुच्छेद 6(2) का सहारा ले सकती है, लेकिन उन्हें यह साबित करना होगा कि आरोप नेक इरादे से लगाए गए हैं. जो मौजूदा हालात में बेहद मुश्किल है.
अंतरराष्ट्रीय मंच पर कोई हस्तक्षेप नहीं
यह संधि पूर्णतः द्विपक्षीय है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा. इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (ICJ) तभी सुनवाई करेगा जब दोनों देश सहमत होंगे. यानी मामला पूरी तरह से भारत और बांग्लादेश के बीच का है. भारत का प्रत्यर्पण अधिनियम 1962 भी छूट देता है। भारतीय कानून कहता है कि यदि मामला राजनीतिक है, यदि आरोपी को निष्पक्ष सुनवाई की गारंटी नहीं है, या यदि आरोप संदिग्ध हैं तो भारत किसी के प्रत्यर्पण के लिए बाध्य नहीं है। इसलिए भारत के पास हसीना को न सौंपने की पूरी कानूनी गुंजाइश है।
बांग्लादेश में महिलाओं को फांसी देने का कानून में प्रावधान है, लेकिन आज तक एक भी घटना नहीं हुई है.
बांग्लादेशी समाचार मंच व्यूज़ बांग्लादेश और अन्य चैनलों के अनुसार, 17 नवंबर तक देश में 2,594 मौत की सज़ा पाए कैदी हैं। इनमें 94 महिलाएं शामिल हैं। लेकिन 54 साल में किसी महिला को फांसी नहीं दी गई. आईजी जेल ब्रिगेडियर जनरल सैयद मोहतर हुसैन ने कहा कि महिला कैदियों के लिए अलग सेल है, लेकिन अब तक किसी भी महिला को फांसी की सजा नहीं दी गई है. पूर्व डीआइजी शमसुल हैदर सिद्दीकी का कहना है कि कानून में ऐसी कोई छूट नहीं है कि महिलाओं को फांसी नहीं दी जा सके, केवल किसी भी महिला का मामला कानूनी प्रक्रिया पूरी कर फांसी तक नहीं पहुंचा है. इन 94 महिला कैदियों में सबसे ज्यादा 54 महिलाएं काशीपुर महिला सेंट्रल जेल में बंद हैं.
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