बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की करारी हार कोई अप्रत्याशित घटना नहीं थी, बल्कि यह लंबे समय से बन रही राजनीतिक दरार थी, जिसे चुनाव नतीजों ने उजागर कर दिया. यह चुनाव परिणाम महागठबंधन के भीतर नेतृत्व को लेकर आखिरी समय तक चली खींचतान, आपसी सौहार्द, विश्वास की कमी और कशमकश का नतीजा था.
जहां एक ओर महागठबंधन बिखरा हुआ रहा, वहीं दूसरी ओर एनडीए ने संगठित, स्पष्ट और एकजुट होकर अभियान चलाया. इस हार के केंद्र में महागठबंधन का सबसे चमकीला चेहरा और बड़ा वोट खींचने वाला नेता माने जाने वाले तेजस्वी यादव रहे. एक ऐसी हार जो अब पीछे मुड़कर देखने पर काफी हद तक खुद की दी हुई लगती है। महीनों से जहां विपक्षी दल आपसी सहमति बनाने की कोशिश में असमंजस की स्थिति में थे, वहीं दूसरी ओर एनडीए गठबंधन में सीटों के तालमेल को लेकर ऑफस्क्रीन कोई पेंच नहीं था.
सीट बंटवारा सबसे बड़ी समस्या बनी
सीट बंटवारे के समय तक जहां महागठबंधन दोस्ताना लड़ाई तक पहुंच गया था, वहीं बीजेपी और जेडीयू के वरिष्ठ नेता एनडीए के नाराज उम्मीदवारों को मनाने में लगे हुए थे. इसमें दोनों ही पार्टियां सफल रहीं. नामांकन के समय तक जहां एनडीए नेताओं और कार्यकर्ताओं में जोश और उत्साह था, वहीं गठबंधन एक मजबूत राजनीतिक मोर्चे के बजाय आंतरिक सौदेबाजी में लगे एक थके हुए समूह के रूप में दिखाई देने लगा।
एनडीए में जहां आपसी सहयोग और विश्वास की भावना थी, वहीं महागठबंधन में शामिल हर दल अविश्वास की मानसिकता से काम कर रहे थे. इस खींचतान का केंद्र बिंदु तेजस्वी यादव थे, जो रणनीतिक लचीलेपन की बजाय प्राथमिकताओं पर अड़े रहने की छवि से बाहर नहीं आ सके. वह खुद को सीएम उम्मीदवार घोषित करने को लेकर इतने अड़े हुए थे कि अपने नाम पर मुहर लगने तक उन्होंने अपनी सक्रियता न्यूनतम रखी. वहीं, चुनाव की घोषणा से महीनों पहले से ही एनडीए चुनावी तैयारियों में जुटी हुई थी.
पारिवारिक हस्तक्षेप एवं संगठनात्मक कमजोरी
तेजस्वी यादव की ‘युवा उत्तराधिकारी’ छवि पिछले कुछ वर्षों में सावधानीपूर्वक तैयार की गई थी, लेकिन चुनावों ने स्पष्ट कर दिया कि यह छवि अभी भी बेहद नाजुक है। लालू परिवार के भीतर मतभेद, विशेषकर भाई-बहनों के बीच नाराजगी एक राजनीतिक दायित्व के रूप में उभरी। तेजस्वी के करीबी माने जाने वाले संजय यादव के प्रभाव को लेकर परिवार में असंतोष था, जिसने पार्टी के फैसलों को एक संकीर्ण दायरे तक सीमित कर दिया.
उनके अपने भाई ने तो तेजस्वी को जयचंदों से घिरा हुआ बता दिया. उनकी सबसे प्रिय बहन ने भी परिवार के भीतर घुसपैठियों के प्रभाव का संकेत दिया, जिससे परिवार के भीतर का संघर्ष जगजाहिर हो गया।
पार्टी नेता और कार्यकर्ता भी असहज दिख रहे थे. यहां तक कि पार्टी कार्यकर्ता भी कह रहे थे कि तेजस्वी यादव से कौन मिलेगा और कौन नहीं, यह कथित तौर पर संजय यादव तय करते थे. मामला तेजस्वी यादव तक भी पहुंचा, लेकिन वे किसी भी कार्यकर्ता से ज्यादा अपने ‘विश्वसनीय’ पर भरोसा करते रहे. राजद नेताओं ने यह भी आरोप लगाया कि सीटों के बंटवारे में जिताऊ उम्मीदवार की जगह किसी खास व्यक्ति की पसंद के उम्मीदवार को टिकट दे दिया गया.
इतना ही नहीं, महागठबंधन के सहयोगियों को भी राजद ने इस तरह से टिकट दिया कि ऐसा लगा जैसे यह महज औपचारिकता हो.
एनडीए की ताकत बनाम महागठबंधन की तात्कालिकता
बिहार की राजनीति में अनुशासन और स्पष्ट संदेश ही सफलता की कुंजी है. सुशासन बिहार के लिए ऐसा मंत्र है, जिसे महागठबंधन हासिल नहीं कर सका. बिहार के मतदाता सुशासन पसंद करते हैं और उन्हें नीतीश कुमार में सुशासन की गारंटी ज्यादा दिखती है. नीतीश कुमार की सुशासन वाली छवि को तोड़ने में अब तक कोई भी पार्टी सफल नहीं हो पाई है.
तेजस्वी के चुनाव प्रचार और उनकी क्षमता पर संदेह नहीं किया जा सकता. वह महागठबंधन के एकमात्र स्टार प्रचारक और वोट खींचने वाले नेता हैं। 2020 के चुनाव में भी उन्होंने बेरोजगारी और पलायन जैसे मुद्दों से माहौल बदला, लेकिन सिर्फ भीड़ खींचना काफी नहीं है. इस चुनाव में उन्होंने नेता और समन्वयक दोनों की भूमिका निभाने की कोशिश की और दोनों मोर्चों पर उनकी सीमाएं स्पष्ट हो गईं. महागठबंधन की यह हार न सिर्फ एक राजनीतिक गठबंधन का पतन है, बल्कि कुप्रबंधन और कमजोर रणनीति का सबक भी है, जिसे बिहार की राजनीति आने वाले वर्षों तक याद रखेगी.



