भोपाल का सिंधी समुदाय हर साल एक अनोखी परंपरा निभाता है, जो शायद ही देश में कहीं और देखने को मिलती है। देव उठनी ग्यारस के दिन सिंधी महिलाएं सज-धज कर श्मशान घाट पहुंचती हैं। आपको बता दें कि वह यहां किसी को विदा करने नहीं बल्कि सत्संग में शामिल होने आती हैं। यह परंपरा 40 वर्षों से भी अधिक समय से चली आ रही है, जो सिंधी समाज की एक विशेष पहचान मानी जाती है।
उनका मानना है कि संत नगर स्थित विश्राम घाट डरने की जगह नहीं है, बल्कि भगवान के घर तक पहुंचने का एकमात्र द्वार है। इसी मान्यता के साथ महिलाएं हर साल इस दिन यहां भजन-कीर्तन और सत्संग करती हैं।
यह परंपरा कहां से शुरू हुई?
इस परंपरा की नींव संत स्वामी टेउंराम ने रखी थी। उन्होंने अपने अनुयायियों को सिखाया कि मृत्यु अंत नहीं है, बल्कि आत्मा की ईश्वर के पास वापसी है। उनके आदेश पर टेऊंराम आश्रम से जुड़ी महिलाएं पहली बार विश्रामघाट पहुंचीं और तब से यह सिलसिला जारी है.
टेऊंराम आश्रम से जुड़े दयाल तोलानी का कहना है कि यहां सत्संग करने से आध्यात्मिक शांति मिलती है और मन से डर खत्म हो जाता है।
सत्संग का माहौल
पहले महिलाएं आश्रम से भजन गाते हुए संतनगर की सड़कों पर घूमती थीं, फिर विश्राम घाट पहुंचकर सत्संग में भाग लेती थीं. अब कभी-कभी विश्रामघाट पर ही आयोजन होते हैं। यहां राम एण्ड श्याम पार्टी द्वारा भजन-कीर्तन प्रस्तुत किये गये। वहीं, मुंबई से आए स्वामी देवप्रकाशजी कल्याण अरदास और पल्लव का इसमें विशेष योगदान है।
साहस का प्रतीक
कार्यक्रम में शामिल महिलाओं का कहना है कि जब वे विश्रामघाट आती हैं तो उन्हें डर नहीं लगता. अंदर से एक अलग तरह की शांति का अनुभव होता है। कई महिलाएं अपने बच्चों को भी साथ लाती हैं, ताकि वे बचपन से ही जीवन की सच्चाई को समझ सकें। यह आयोजन सिंधी समाज की सोच और साहस का प्रतीक है। आमतौर पर जहां श्मशान का नाम सुनकर लोग पीछे हट जाते हैं, वहां सिंधी महिलाएं गीत-भजन के साथ भगवान को याद करती हैं, यह अपने आप में बड़ी बात है।
रवि कुमार, भोपाल



